Friday 15 June 2018

आया मौसम, फुटबॉल का...


आया मौसम फुटबॉल का...

मौसम ने चाहे कितना भी परेशान कर लिया हो, लेकिन अगले एक महीने तक करोड़ों लोगों को सिर्फ इस बात की फ़िक्र होगी, कि जीतेगा कौन? क्योंकि शुरू हो चुका है फुटबॉल विश्व कप। दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल और इस खेल की सबसे बड़ी प्रतियोगिता- विश्व कप। दुनिया में सबसे ज्यादा देखे जाने वाला खेल है फुटबॉल विश्व कप। इस बार विश्व कप का मेज़बान रूस है।


रुस और सउदी अरब के बीच पहले मैच के साथ 32 दिन और 64 मैच के इस सिलसिले का आगाज़ हुआ। हर बार की तरह नज़र आएगी आकर्षक ड्रिबलिंग, गोलकीपर के हैरतंगेज़ सेव, गोललाइन पर डिफेंडर्स के ज़बरदस्त टैकल और इंजरी टाइम या एक्सट्रा टाइम में मैच पलट देने वाले रोमांचक गोल, यानि वो सब जो इस खेल को सबसे ख़ूबसूरत खेल बनाता है। इतना ही नहीं, इनके अलावा होंगे स्टेडियम के अंदर और स्टेडियम के बाहर, बार और क्लब में, घरों के अंदर टीवी के सामने बैठे फैन्स की वो लहर और हुंकार, जिसके कारण फुटबॉल दुनिया भर में लोकप्रिय है।

आमतौर पर ब्राज़ील, जर्मनी, अर्जेंटाइना, स्पेन, फ्रांस, इटली और हॉलैंड ही सबसे बड़े फेवरिट रहते हैं। हालांकि 4 बार की चैंपियन इटली और तीन बार की उपविजेता नीदरलैंड्स जैसी मज़बूत टीमें इस बार क्वालिफाई भी नहीं कर पाई। इस बार भी स्थिति कुछ खास बदली नहीं है.

ब्राज़ील-
जिन देशों में फुटबॉल थोड़ा ही लोकप्रिय है, वहां भी ब्राज़ील, पेले, रोनाल्डो और अब नेमार का नाम जानने और पसंद करने वाले मिल ही जाएंगे। दुनिया की इकलौती ऐसी टीम जिसने अभी तक सभी विश्व कप में हिस्सा लिया है और सबसे ज़्यादा 5 बार जीता भी है। फुटबॉल को एक से एक नगीने इस ज़मीन ने दिए हैं। इसलिए ब्राज़ील हर विश्व कप की सबसे फेवरिट टीम होती है। हालांकि 2002 में आख़िरी बार चैंपियन बनने के बाद अगले 3 विश्व कप में ब्राज़ील का प्रदर्शन उम्मीद के अनुसार नहीं रहा।

अपनी जमीन पर 2014 में खेले गए इवेंट में सेमीफाइनल में पहुंचे ज़रूर थे, लेकिन पूरे टूर्नामेंट में वो ब्राज़ीलियन स्टाइल और फ्लेवर नहीं दिखा जो पुरानी टीमों में होता था। इसका असर सेमीफाइनल में हुई 1-7 की हार में नज़र आया।

नेमार जूनियर
इसकी मुख्य वजह थी टीम की युवा खिलाड़ी नेमार जूनियर पर अति-निर्भरता। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। नेमार अभी भी टीम के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं और टीम की सफलता में उनका किरदार अहम होगा। लेकिन अब टीम में गैब्रिएल हेसुस, फिलिप कुटिन्हियो, विलियन, रॉबर्टो फर्मिनियो, जैसे उच्च स्तर के अटैकर कैसेमिरो, ऐलिसन जैसे सुपर टैलेन्टेड प्लेयर्स हैं। वहीं थियागो सिल्वा, मार्सेलो, फर्नान्डिन्हियो और फिलिपे लुई जैसे अनुभवी और परिपक्व खिलाड़ी भी हैं।
फिलिप कुटिन्हियो

तेज़ी, करिश्माई स्किल्स और बेहतरीन तालमेल... ब्राज़ील की टैलेंट से भरी इस टीम को विश्व कप का सबसे बड़ा दावेदार बनाता है। कुल मिलाकर दुनिया की सबसे संतुलित टीम इस ब्राजीलियन टीम को कहा जा सकता है। क्वालिफाईंग दौर में विपक्षियों को रौंदने के बाद हाल ही में हुए वार्म-अप फ्रेंडली मैचों में ब्राज़ील ने बिना कोई कोताही के अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं। इसलिए दुनिया भर में सबसे ज़्यादा उम्मीदें इस टीम से ही लगी होंगी।

जर्मनी-
5 बार के चैंपियन ब्राज़ील के वर्चस्व को चुनौती देने का काम इस टीम ने ही किया है। सबसे ज्यादा 8 बार फाइनल में पहुंचने वाली जर्मनी की टीम ने 4 बार खिताब भी जीता है। 2014 की चैंपियन इस टीम की सबसे बड़ी ताकत टीम के कोच जोएकिम लोउ हैं, जिन्होंने इस टीम को एक संगठित और मजबूत इकाई में तब्दील किया है।

2014 विश्व कप की विजेता जर्मन टीम
दुनिया भर में व्यक्तिगत क्षमता के तौर पर भले ही क्रिस्टियानो रोनाल्डो, लायोनेल मेसी, नेमार, एंटोएन ग्रीज़मेन, हैरी केन जैसे खिलाड़ियों को सर्वश्रेष्ठ माना जाता हो, लेकिन जब एक सुदृढ़ टीम की बात आती है तो उसमें सबसे पहले जर्मनी का नाम आता है। कोई एक खिलाड़ी सूरमा नहीं, बल्कि पिच पर मौजूद सभी 11 खिलाड़ी एक बराबर क्षमता से भरपूर हैं। अटैक के वक्त पूरी टीम एक वूल्फ पैक की तरह विपक्षी पर टूट पड़ते हैं और जब डिफेंड करना हो तो मिडफील्ड से लेकर गोलपोस्ट तक एक मज़बूत चट्टान बन जाते हैं।

जर्मनीः एक संतुलित और संगठित टीम
टीम में मेसुत ओज़िल जैसे अनुभवी और बेहतरीन क्रिएटिव मिडफील्डर हैं, तो साथ में हैं थॉमस मुलर जैसे शानदार गोलस्कोरर, जो मिडफील्ड में जितने मज़बूत हैं, उतने ही धारदार गोल स्कोरर भी हैं। सिर्फ 2 विश्व कप में ही मुलर के 10 गोल हैं, जितने इस दौर के दो सर्वश्रेष्ठ फुटबॉलर्स क्रिस्टियानो और मेसी के 3 विश्व कप में मिलाकर भी नहीं हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, जर्मनी के पास हैं, टोनी क्रूस और सैमी खेडीरा जैसे सेट्रंल मिडफील्डर, जो किसी भी टीम को अपने इंच-पर्फेक्ट पास से भेद सकते हैं, तो कड़ी मार्किंग से विपक्षी अटैक को बांध भी सकते हैं।

इसी तरह टीम की लोहे की ढाल हैं मैट्स हमल्स, जेरोम बोएटैंग. सेंटर बैक्स इस जोड़ी ने ही पिछले विश्व कप में जर्मनी की जीत में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गोल पोस्ट को पिछले विश्व कप में अभेद्य बनाने वाले कीपर मैनुएल नॉयर इस बार भी नंबर 1 हैं और कप्तान भी। नॉयर जितना ही मजबूत विकल्प टीम के पास सेकेंड कीपर मार्क आंद्रे टर स्टगेन के तौर पर है। दुनिया के दो सबसे बेहतरीन गोलकीपर।

स्पेन-
क्वालिफाईंग दौर में एक भी मैच नहीं हारने वाली ये टीम कप की सबसे मजबूत टीम में से है। टीम में जहां 2010 की विश्व विजेता टीम के कई खिलाड़ी बतौर सीनियर मौजूद हैं, तो यूरोप की अलग-अलग लीग में चैंपियन बनी टीमों की कई युवा प्रतिभाएं हैं। 2010 में चैंपियन बनने के बाद 2014 में स्पेन पहले दौर में ही बाहर हो गई थी।

टीम के पास डिएगो कॉस्टा, जैसे बेहतरीन स्ट्राईकर है, तो वहीं टीम की जान उसका मिडफील्ड है। यहां टीम के पास दुनिया के सर्वकालीन महान मिडफील्डरों में से एक आंद्रे इनिएस्टा हैं। वही इनिएस्टा, जिसने 2010 में फाइनल में विजयी गोल दागा था। साथ में हैं जादुई डेविड सिल्वा। सिल्वा ने हाल ही में मैनचेस्टर सिटी को प्रीमियर लीग जिताने में बड़ी भूमिका निभाई थी। उनके साथ हैं सर्जियो बुस्केट्स, जो किसी भी अटैक को रोकने के साथ ही टीम के लिए कई मौकों पर अटैक की शुरुआत करते हैं। रियाल मेड्रिड के जोशीले युवा इस्को और मार्को असेंसियो जैसे तकीनीकी रूप से कुशल अटैकिंग मिडफील्डर भी हैं।
स्पेन के स्ट्राइकर डिएगो कॉस्टा और डेविड सिल्वा

जितना मज़बूत मिडफील्ड उतना ही मज़बूत डिफेंस। सर्जियो रामोस औऱ जेरार्ड पिक्के जैसे दो सबसे जानदार, अनुभवी और चैंपियन सेंटर बैक हैं। क्लब लेवल पर दो सबसे कट्टर विरोधी टीम के लिए खेलने के बावजूद दोनों ने राष्ट्रीय टीम में कोई कसर नहीं छोड़ी। गोलपोस्ट पर टीम की दीवार हैं दुनिया के टॉप 3 गोलकीपर में से एक- डेविड डि हेया। प्रीमियर लीग में इस कीपर के पार बॉल निकालना सबसे मुश्किल काम साबित हुआ है। स्पेन को डि हेया से 2010 के इकेर कैसियस जैसे प्रदर्शन की उम्मीद होगी। अगर वो सफल हुए तो इस स्पेनिश टीम को जीतने से रोकना सबसे कठिन काम होगा।

फ्रांस-
1998 में चैंपियन और 2006 में उप-विजेता। बीते 3 दशक में फ्रांस का विश्व कप में यही सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कभी औसत तो कभी निम्न स्तर का रहा है। लेकिन इस बार की फ्रांस की टीम पर न सिर्फ इसे पलटने की ज़िम्मेदारी है, बल्कि उनसे उम्मीदें और उनकी संभावनाएं उससे भी ज्यादा हैं। यूरोप की टॉप 5 लीग की चैंपियन टीमों में एक न एक खिलाड़ी फ्रांस का ज़रूर है। फ्रांस की वर्तमान टीम और इस देश की युवा पौध ने दुनिया के बड़े बड़े क्लब और टीमों को हैरान कर दिया है।

टीम की ताकत इसका अटैक ही है। एंटोएन ग्रीज़मैन अटैक को लीड करते हैं, जबकि ओलिवियर जिरू और 19 साल की युवा सनसनी कीलियन एमबाप्पे उस अटैक को पैना बनाते हैं। जहां ग्रीज़मैन एटलेटिको के सबसे बड़े स्टार हैं, वहीं एमबाप्पे ने कवानी और नेमार की मौजूदगी के बावजूद अपनी बेहतरीन छाप पीएसजी के लिए छोड़ी है। मिडफील्ड को मज़बूती देने के लिए प्रीमियर लीग के दो बड़े नाम- पॉल पोग्बा और एनगोलो कांटे हैं। युवेंटस के अनुभवी मिडफील्डर ब्लैस मैटुइडी इस मिडफील्ड को पूरा करते हैं।

ग्रीजमैन और एमबाप्पे पर है फ्रांस की उम्मीदें
सिर्फ यही नहीं, बल्कि नबील फकीर, ओसुमान डेम्बेली, थॉमस लेमार जैसे युवा और प्रतिभावान अटैकर भी विपक्षी टीमों के लिए बड़ा सिरदर्द साबित हो सकते हैं।

प्रतिभा से भरी इस टीम की बड़ी कमज़ोरी इसका डिफेंस है। हालांकि टीम के पास बार्सिलोना के अमटिटी और रियाल मैड्रिड के वारेएन जैसे मजबूत सेंटर बैक हैं, और बेंजामिन मैंडी के तौर पर सशक्त डिफेंडर हैं। गोलकीपर-कप्तान ह्यूगो लॉरिस ने इंग्लिश क्लब स्पर्स के लिए पिछले कुछ सीजन में शानदार कीपिंग की है और इसलिए उनको यूरोप के शीर्ष 10 गोलकीपरों में गिना जाता है. लेकिन पिछले सीज़न में लॉरिस ने कई ऐसी गलतियां कीं, जिनके कारण टीम को गोल खाना पड़ा। बैकअप गोलकीपर एरेओला कम अनुभवी और कम भरोसेमंद हैं।

फिर भी टीम सिर्फ अपने बेहतरीन अटैक के दम पर टूर्नामेंट में अपनी दावेदारी ठोक सकती है।

अर्जेंटाइना-
दक्षिण अमेरिका में फुटबॉल का दूसरा बड़ा पावर हाउस। चैंपियन का खिताब 2 बार। इसके बावजूद विश्व कप के लिए क्वालिफाई करना भी मुश्किल हो गया था। क्वालीफायर्स में अपने आखिरी मैच में जीत दर्ज कर किसी तरह जगह बनाई। इसकी वजह सिर्फ एक खिलाड़ी- लायोनेल मेसी। आखिरी क्वालिफायर में मेसी की हैट्रिक के कारण ही अर्जेंटाइना इस विश्व कप में खेल रहा है। इसके बावजूद भी इस टीम को दावेदारी में कम नहीं आंका जा सकता।

ये सही है कि अर्जेंटाइना मेसी पर हद से ज्यादा निर्भर है। उसकी वजह भी साफ है। मेसी सदियों में एक बार पैदा होने वाले खिलाड़ी हैं, जो अकेले दम पर मैच जिताने का माद्दा रखते हैं। पिछले विश्व कप में भी मेसी ने अर्जेंटाइना को अपने दम पर फाइनल तक पहुंचाया था। फिर भी अर्जेंटाइना चैंपियन बनने में असफल रहा।

मेसीः अर्जेंटाइना के रक्षक; डाइबाला और ओट्टामेंडी
क्वालिफायर्स में अर्जेंटाइना की जो स्थिति थी उससे तो अभी भी यही लग रहा है कि मेसी को ही इस टीम को खींचना पड़ेगा। फिर भी, इस बार इस टीम के पास बेहतरीन अटैकिंग फोर्स है। मेसी के अलावा अनुभवी सर्जियो अगुएरो सबसे खास हैं। प्रीमियर लीग में मैनचेस्टर सिटी के लिए अगुएरो पिछले कई सीजन से खुद को साबित करते आ रहे हैं। इस बार अगुएरो ही टीम की पहली पसंदे के स्ट्राइकर होंगे, इसमें कोई शक नहीं लगता।

युवेंटस के युवा फॉरवर्ड पाउलो डाइबाला से टीम को बहुत उम्मीदें होंगी। डाइबाला ने इटैलियन लीग में पिछले 2 सीजन में शानदार प्रदर्शन किया है और युवेंटस की लगातार लीग टाइटल जीतने में बड़ा रोल निभाया है। वहीं अनुभवी एन्हेल डि मारिया पर भी अटैकिंग मिडफील्डर के तौर पर जिम्मेदारी बड़ी रहेगी। डि मारिया अपनी तेजी, ड्रिबलिंग और सटीक क्रॉस से डिफेंडर्स के लिए बड़ी मुसीबत साबित हो सकते हैं।

अर्जेंटाइना की दिक्कत भी डिफेंस में है। हालांकि टीम के पास मैसेरैन्हो और ओट्टामेंडी जैकससे क्वालिटी डिफेंडर्स हैं। ओट्टामेंडी इस वक्त दुनिया के टॉप डिफेंडर्स में से हैं। वहीं उम्रदराज मैसेरैन्हो का अनुभव टीम के लिए खास होगा। वो कितना खेल पाएंगे ये एक अलग विषय है। इनके अलावा रोमा के लिए खेलने वाले फाजियो हैं. फिर भी टीम डिफेंस में ज्यादा मजबूत नहीं दिखती। लेकिन याद रहे, इस टीम के पास है- लायोनेल मेसी।

बेल्जियम- टूर्नामेंट का डार्क हॉर्स!
फीफा रैंकिंग में तीसरे नंबर की टीम है बेल्जियम। वर्तमान में दुनिया के कुछ सबसे बड़ी प्रतिभाएं इस टीम में हैं। इसके बावजूद सिर्फ डार्क हॉर्स क्यों? विश्व कप जीतने के लिए सिर्फ टैलेन्टेड खिलाडियों का होना काफी नहीं है। जरूरत है तो रणनीति और खिलाड़ियों के बीच तालमेल की। इसलिए अगर बेल्जियम विश्व कप की सबसे बड़ी टीम साबित हो जाए तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।

इस टीम के पास वो सारे हथियार हैं जो इस द्वंद में काम आने वाले हैं। अपने गोल पोस्ट के बीच तैनात रक्षक से लेकर विरोधी के घर में घुसकर शिकार करने वाला चालाक शिकारी इस टीम में हैं। टीम के बारे किसी भी चर्चा की शुरुआत इसके कप्तान विंसेंट कोम्पनी से की जानी चाहिए. एक सच्चा लीडर। प्रीमियर लीग में अपने नेतृत्व से मैनचेस्टर सिटी को ख़िताब दिलाने वाला ये सेनापति टीम के अलावा रक्षापंक्ति का नेतृत्व भी करेगा।

बेल्जियम की ताकत- ईडन हेज़ार्ड और लुकाकू
गोलकीपर थिबॉ कोर्टुआ पहले ही दुनिया को अपने बेहतरीन सेव्स से प्रभावित कर चुके हैं। चेल्सी के इस कीपर ने अपने क्वालिटी कीपिंग से प्रीमियर लीग जीतने में बड़ा रोल निभाया। वहीं डिफेंस में कोम्पनी के अलावा जैन वर्टोनहैन का अनुभव है। साथ में हैं टोबी ऑल्डरवाइड, वेरमैलन औऱ म्यूनियर जैसे कमाल के डिफेंडर। इनसे पार पाना किसी भी अटैक के लिए टेढी खीर साबित होगा।

जितना शानदार डिफेंस उतना ही बेहतरीन मिडफील्ड। इस वक्त यूरोप में संभवतः सबसे बेहतरीन सेंट्रल मिडफील्डर केविन डि ब्रुयना (केडीबी) हैं। केडीबी के पर्फेक्ट लंबे पास हों या स्ट्राइकर के सामने गिरने वाले पिन पॉइंट क्रॉस हों या सिल्की थ्रू बॉल्स, इन सबका गवाह कम से कम यूरोप तो बन ही चुका है। दुनिया के सामने भी ये दिखेगा, इसमे कोई दोराय नहीं। बेल्जियम की जीत बिना केडीबी के असिस्ट्स के संभव ही नहीं।

अब बात फॉरवर्ड लाइन की। जितना लिखा जाए उतना कम है। रोमेलु लुकाकू जैसा स्ट्राइकर टीम के पास है, जिसकी एरियल प्रेजेंस भी उतनी ही मजबूत है, जितना लुकाकू के बांये पैर का शॉट। लेकिन फॉरवर्ड लाइन के स्टार हैं विंगर इडेन हेजार्ड। स्पीड, ड्रिबलिंग, स्किल्स और क्लीन स्ट्राईक। हेजार्ड का सामना करने के लिए डिफेंडर्स को एक सेकेंड के लिए भी सांस लेना मुश्किल हो सकता है। इसलिए चुस्त रहना जरूरी है। हेजार्ड इस वक्त फॉर्म में हैं और लुकाकू के साथ उनका तालमेल बेल्जियम को मंजिल तक पहुंचाने में अहम साबित होगा।

इतनी क्वालिटी टीम का ग्रुप स्टेज से आगे बढना कोई मुश्किल काम नहीं। बल्कि ऐसी टीम का आगे बढते रहना टूर्नामेंट में हैरतंगेज़ फुटबॉल की कई मिसाल पेश कर सकता है।

अंडर डॉग- क्रोएशिया कर सकता है उलटफेर!
दुनिया में बहुत ही कम ऐसे लोग होंगे जिनको क्रोएशिया में विश्व कप जीतने की क्षमता लगती हो। लेकिन ये टीम बड़ी टीमों को चौंका सकती है। इसके लिए टीम की ताकत इसका मिडफील्ड का चलना ज़रूरी है। टीम के पास यूरोप के सबसे कलात्मक मिडफील्डर है, रियाल मैड्रिड के लुका मॉड्रिच। मैड्रिड के साथ लगातार 3 चैंपियंस लीग जीत चुके इस स्टार प्लेमेकर ने अपने क्लब और नेशनल टीम के लिए अक्सर आला दर्ज़े का प्रदर्शन ही दिखाया है।

लुका मॉड्रिच
क्रोएशिया को आगे बढने में मॉड्रिच का खास किरदार होगा. मॉड्रिच का साथ देने के लिए बार्सिलोना के एक और शानदार मिडफील्डर हैं- इवान रैकिटिच। बार्सिलोना में इस सीज़न उन्हें पर्याप्त मौका मिला है और उसमें रैकिटिच ने अपने अच्छे विज़न के जरिए टीम में जगह पक्की की। मैड्रिड में मॉड्रिच के साथी मैटियो कोवासिच भी हैं, जो होल्डिंग मिडफील्ड या सेंट्रल मिडफील्ड में अच्छी भूमिका निभाते हैं।

टीम की फॉरवर्ड लाइन में युवेंटस के मारियो मांड्ज़ुकिच खास होंगे। अगर मिडफील्ड की अच्छी सप्लाई का चालाकी से फायदा उठाने में मांड्ज़ुकिच कामयाब होते हैं, तो ये क्रोएशिया को रोकना मुश्किल हो सकता है। वहीं विंगर इवान पेरिसिच भी स्ट्राइकर मांड्ज़ुकिच के साथ मिलकर डिफेंस के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।

बाकी टीमों का क्या?
इंग्लैंड के कप्तान हैरी केन
विश्व कप की अन्य टीमों में क्रिस्टियानो रोनाल्डो के नेतृत्व वाली पुर्तगाल एक खतरनाक टीम साबित हो सकती है। लेकिन टीम की दिक्कत रोनाल्डो के अलावा किसी और बड़े मैच वाला खिलाड़ी नहीं होना है। यूरो कप जीतने वाली पुर्तगाल के लिए विश्व कप मुश्किल चुनौती होगा.

वहीं हैरी केन, रहीम स्टर्लिंग, जेमी वार्डी जैसे अच्छे अटैक वाली इंग्लैंड की टीम भी बड़ी चुनौती पेश कर पाएगी, इसमें तमाम विशेषज्ञों से लेकर फैन्स को भी शक है।

इनके अलावा उरुग्वे, कोलंबिया, पोलैंड, डेनमार्क जैसी कुछ टीमें हैं, जिनमें यूरोप की बेहतरीन टीमों के कुछ उच्च कोटि के खिलाड़ी हैं, लेकिन इन वन मैन आर्मी को विश्व कप जीतने के लिए किसी चमत्कार की ही जरूरत पड़ेगी।



(सभी फोटो- Twitter @FIFAWorldCup)

Friday 6 October 2017

अनजान आसमान में लड़खड़ाकर भी नए सितारे चमके



FIFA U-17 World Cup

India vs USA (0-3)

जैसी उम्मीद थी, बिल्कुल वैसे ही शुरुआत हुई भारत की अंडर-17 फ़ुटबॉल विश्व कप में। पहली बार भारत में फ़ीफ़ा का कोई इवेंट हो रहा है। यानि भारत में पहली बार किसी वैश्विक स्तर के फ़ुटब़ॉल टूर्नामेंट का आयोजन हो रहा है। लेकिन इससे भी बड़ी बात है कि भारत फ़ुटबॉल के किसी भी स्तर पर विश्व कप में शामिल हो रहा है। भारत में फ़ुटबॉल का स्तर और इसे लेकर लोगों की रुचि बहुत अच्छी नहीं है। इसलिए ये टूर्नामेंट इस लिहाज़ से ख़ास है।

टूर्नामेंट के पहले ही दिन भारत का मुकाबला अमेरिका की टीम से था। उम्मीद थी कि पहले मैच के लिए बेहतरीन माहौल जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में होगा, और ऐसा हुआ भी। ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्टेडियम में पहुंचकर दोनों टीमों से मिले और देर तक मैच भी देखा। दूसरी बात, चूंकि भारतीय टीम ने इससे पहले ऐसे अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट नहीं खेले थे, सिवाय बीते कुछ महीनों में ट्रेनिंग टूर के, जहां कई अच्छी टीमों के साथ मैच खेले, इसलिए अगर ईमानदारी से कहा जाए, तो भारतीय टीम से ज़्यादा उम्मीद भी नहीं थी। जीत की तो बिल्कुल भी नहीं। हुआ भी कुछ यूं ही।







मैच रिपोर्ट
लेकिन इन युवा खिलाड़ियों ने उम्मीद से कई बेहतर प्रदर्शन किया। शुरू से ही अमेरिका की मैच पर पकड़ रही। बॉल पज़ेशन से लेकर भारतीय टीम के पेनल्टी एरिया तक। अमेरिका के फॉरवर्ड और मिडफील्डर्स ने अच्छे मौके बनाए गोल करने के, लेकिन गोलकीपर धीरज सिंह ने भी शुरू से ही बेहतरीन रिफ़लेक्शन और समझ दिखाई और गोल के मौके नहीं दिए। डिफेंडर्स हालांकि अमेरिका की फॉरवर्ड लाइन की तेज़ी और स्किल के सामने अक्सर बिखरे हुए दिखे। फिर भी पहले आधे घंटे तक गोल नहीं होने दिया।

लेकिन 30वें मिनट में अमेरिका को पहला सबसे अच्छा मौका मिला पेनल्टी के रूप में। जितेंद्र सिंह ने अमेरिकी कप्तान सार्जेंट को रोकने की कोशिश की लेकिन बॉक्स के अंदर सार्जेंट की शर्ट खींचकर उन्हें गिरा दिया। पहले से ही भारतीय टीम नर्वस तो लग ही रही थी लेकिन पेनल्टी का मौका देने की उदासी और डर जितेंद्र के चेहरे पर साफ़ दिख रहा था। आखिर इतने देर तक रोके रखने के बाद ये गलती ही टीम पर भारी पड़ी. सार्जेंट ने बेहद आसानी से अनुभवी खिलाड़ी की तरह गोलपोस्ट को बिल्कुल दाहिने कोने पर भेद दिया। धीरज के लिए इसमें करने के कुछ भी नहीं था।
पहले झटके के बावजूद लेफ्ट विंग पर कोमल और सेंटर फॉरवर्ड पर अनिकेत ने कुछ अच्छे ड्रिबल्स के साथ मौके बनाए, लेकिन कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकला। पहले हाफ़ में 0-1 के स्कोर पर ख़त्म हुआ।

दूसरे हाफ़ में ज़्यादा बैलेंस फ़ुटबॉल दिखा। दोनों ओर से लगातार अटैक चला। सेकेंड हाफ के 6ठें मिनट में ही अमेरिका को मिले क़ॉर्नर पर भारतीय टीम बॉक्स में कुछ कंफ्यूज़ दिखी और डर्किन का शॉट दो खिलाड़ियों से डिफ्लेक्ट होकर गोल में चला गया। धीरज के पास कोई मौका नहीं था और अमेरिका की बढत 0-2 हो गई। अमेरिका के लिए आख़िरी गोल कार्लटन ने बेहतरीन काउंटर अटैक के ज़रिए किया और भारत विश्व कप में अपना पहला ही मैच 0-3 से हार गया।







भारतीय टीम का प्रदर्शन
पहले भी ये बात लिखी जा चुकी है कि टीम से जीत की उम्मीद तो नहीं थी क्योंकि अमेरिका ज़्यादा बेहतर टीम है। लेकिन फ़ील्ड पर जो दिखा वो कुछ अलग था। एक कम्प्लीट टीम प्रदर्शन। ऐसा नहीं है कि मैन इन ब्लू कहीं भी अमेरिका पर हावी होत दिखे, लेकिन जितने बार भी मौके आए, उसमें दिख गया कि इस टीम को सिर्फ इस विश्व कप में खेलने तक ही सीमित नहीं रख सकते। इन्हें आने वाले दिनों में और ज़्यादा समर्थन की ज़रूरत है। 
भारतीय टीम ने कोई भी गोल नहीं किया, लेकिन कई बार अमेरिका के फाइनल थर्ड में घुसकर गोल की कोशिश ज़रूर की। गोल नहीं हुआ तो उसमें इनके अनुभव की कमी, थोड़ा नर्वस मिजाज़ और ख़राब किस्मत ज़िम्मेदार हैं। कई मौकों पर सिर्फ़ इसलिए गोल नहीं हो पाए, क्योंकि कम अनुभवी होने के कारण अमेरिका के डी में सही फ़िनिशिंग नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद 1 ऐसा मौका था जब टीम की किस्मत ने साथ नहीं दिया। कोमल की कॉर्नर किक पर कोई भी बॉल को टच नहीं कर पाया और बॉक्स में सबसे पीछ खड़े अनवर अली के पास बॉल पहुंची, जिन्होंने थोड़ी जगह बनाकर ज़ोरदार शॉट मारा। लेकिन बद्किस्मती से बॉल गोलपोस्ट से टकराकर अमेरिकी खिलाड़ियों के पास चली गई और अमेरिका ने शानदार काउंटर अटैक के ज़रिए तीसरा गोल किया। इसके अलावा भी 56वें मिनट में एक मौका था जब लेफ्ट विंग से तेज़ी से आए कोमल ने अमेरिका के डिफेंडर और कीपर को चकमा दिया, लेकिन वो बॉल को लॉब करने के चक्कर में ज़्यादा ऊंचा मार बैठे और बॉल पिच के पीछ बने ट्रैक्स पर पहुंच गई। इस लिहाज़ से टीम को अपनी फिनिशंग पर बहुत काम करने की ज़रूरत है, क्योंकि बॉक्स तक तो पहुंचा जा सकता है, लेकिन उसे कन्वर्ट न करना बहुत महंगा पड़ता है। यही टीम के साथ हुआ।



डिफेंडिंग में भारत को कुछ दिक्कतें ज़रूर हुई और अमेरिका के विंगर्स और स्ट्राइकर ने कई बार तेज़ी दिखाते हुए उनको पीछे छोड़ा। हालांकि इसके बावजूद कई शानदार क्लीयरेंस भी डिफेंस लाइन ने किए। डिफेंस लाइन का सबसे शानदार पार्ट गोलपोस्ट पर धीरज सिंह थे। 3 गोल ज़रूर पड़े लेकिन उसमें से कोई भी धीरज की ग़लती या ध्यान की कमी से नहीं हुए। बल्कि धीरज ने कई दफ़ा बेहतरीन जंप और टैकल किए। आगे डाइव मारते हुए बॉल को पंच कर क्लीयर करने वाला शॉट तो एक शानदार वॉल पेपर या बड़े बिलबोर्ड पर लगाया जा सकता है।




एक और एरिया जिस पर कोच और टीम को बहुत काम करने की ज़रूरत है, वो है पासिंग। टीम की पासिंग ज़्यादातर मौकों पर बहुत बिखरी हुई और ख़राब थी, जो अमेरिका पर दबाव बनाने के मौकों पर भारी पड़ी। छोटे पास तो टीम के सही थे, लेकिन लंबे पास टीम के लिए बड़ी चिंता का विषय हैं। दो-तीन मौकों पर ही टीम के लंबे पास सफल थे। ये हैरानी की बात है कि पहले हाफ में ही ये साफ हो गया था उसके बावजूद सेकेंड हाफ में उसमें ख़ास तब्दीली नहीं की गई। इसलिए बेहतर है कि टीम इस पर भरपूर काम करे मैच के दौरान ग़ैरज़रूरी लंबे पास न करे।

टीम के स्टार
वैसे तो बतौर टीम ये ओवरऑल एक उम्मीदों से बेहतर बहादुरी भरा प्रदर्शन था। लेकिन 2 खिलाड़ियों ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया विंगर कोमल थताल और गोलकीपर धीरज सिंह ने। फील्ड पर मौजूद नीली जर्सी पहने खिलाड़ियों में से एक कोमल सिर्फ अपने बालों के फैंसी कलर और स्टाइल से ही नहीं अलग से दिखे, बल्कि अपनी ख़ूबसूरत ड्रिबलिंग और जादूई स्किल और तेज़ी के कारण भी बाकी सबसे अलग दिखे। जितने बार भी कोमल के पास बॉल गई, हर बार भारतीय दर्शकों की उम्मीदें बढ जाती और स्टेडियम में ज़ोरदार चीयरिंग होती। कोमल ने बॉक्स में कई बेहतरीन मूव बनाए भी लेकिन फिनिशिंग की कमी के चलते गोल नहीं मिले। लेकिन 90 मिनट में ये तो साफ हो गया कि भारत के पास एक छुपा सितारा है जो भारतीय फुटबॉल के फलक पर चमकने को तैयार है।

गोल के सामने धीरज सिंह किसी चट्टान की तरह ही खड़े थे। धीरज ने कहीं भी ये ज़ाहिर नहीं होने दिया कि ये उनका पहला विश्व कप मैच है। मैच में धीरज ने हर वो तरीका अपनाया जो मॉडर्न गोलकीपर अपनाते हैं। धीरज ने स्वीपर कीपर के तौर पर बेहद शानदार सेव किए। अमेरिका के 3 गोल में से एक भी गोल ऐसा नहीं था जिसमें धीरज ने कोई मौका दिया हो। धीरज के पंच और स्ट्राइकर पर क्लीयरेंस कहीं भी उलझे हुए या मिस टाइम नहीं थे। हालांकि डिस्ट्रीब्यूशन में और सुधार की जरूरत है और सही पोज़िशन में सही प्लेयर को पहचान कर उसे पास करना ज़रूरी है।

इन दोनों के अलावा भी मिडफील्ड में संजीव, कप्तान अमरजीत और डिफेंस में अनवर अली ने कुछ अच्छे मौके इस मैच में दिखाए।

अब आगे टीम के सामने 2 मैच और हैं। 9 तारीख को कोलंबिया के ख़िलाफ़ और 12 को घाना के ख़िलाफ। कोलंबिया को विश्वकप का अनुभव है। हालांकि कोलंबिया भी अपना पहला मैच घाना से हार चुका है। ऐसे में ये भारतीय टीम के पास अच्छा मौका है कि वो, अव्वल तो एक जीत, नहीं तो ड्रॉ के ज़रिए एक पॉइंट ले सकते हैं। क्योंकि भारत का आखिरी मैच घाना के साथ है जो कि ग्रुप की सबसे मज़बूत टीम है। टीम सेकेंड राउंड में पहुंचेंगी, ऐसी उम्मीद करना बेईमानी होगा। लेकिन बिना पॉइंट जीते टूर्नामेंट से बाहर निकलना ज़्यादा निराशाजनक होगा। इसलिए कोलंबिया के ख़िलाफ टीम के पास उम्मीद भरा एक मौका है।
इसके बावजूद, पहले मैच ने ये तो साबित कर दिया है कि ये टीम आसानी से हार नहीं मान सकती और बेहतर ट्रेनिंग, मैच प्रैक्टिस और एक्सपोज़र के ज़रिए ये खिलाड़ी आने वाले वक्त की भारतीय सीनियर टीम के मज़बूत स्तंभ साबित होंगे और भारत को सीनियर विश्व कप में ले जाने की उम्मीदों को और मजबूती देंगे।

#BackTheBlue

Wednesday 1 May 2013

मुकेश अंबानी बनाम आम आदमी- सुरक्षा किसे और कितनी?



कुछ और बच्चियों-महिलाओं के साथ बलात्कार, कुछ और मंदिरों-मस्जिदों, आम बाज़ारों, पार्कों में बम विस्फ़ोट......
....और फिर टाटा, बिड़ला, अंबानी आदि को भी ज़ेड प्लस सुरक्षा कवच.....

मुकेश अंबानी कहते हैं कि वो सुरक्षा का खर्च खुद उठाएंगे.....
हां भई क्यों नहीं! आखिर देश के सबसे अमीर शख़्स हैं....
औऱ हमारी सरकार भी इन लोगों पर मेहरबान जो रहती हैं.....
आम आदमी के मुकाबले टैक्स जो कम देना पड़ता है...
अरे अब ये देश में इतना निवेश जो करते हैं,,,छूट तो मिलनी ही चाहिए...
और ये तो बड़े आदमी हैं....सरकार जैसी अदनी सी व्यवस्था का एहसान भला कैसे ले सकते हैं.....इसलिए अपनी सुरक्षा का खर्च खुद उठाएंगे....

लेकिन कोई इन्हें ये बताए कि सरकार ने अपने उन जवानों पर इसलिए पैसा निवेश नहीं किया कि उन्हें बाज़ार में 'अच्छा रिटर्न' प्राप्त करने के लिए इन जैसे शाही लोगों के सामने बतौर नुमाइश रखा जाए.....
और ये कोई सरकार के खुद के पैसे नहीं हैं जो इन जवानों को प्रशिक्षित करने में लगते हैं......ये आम आदनी का धन है, जिसे वो इस उम्मीद के साथ सरकार को देता है कि कुछ सुरक्षा उसे भी मिले...लेकिन हमारी सरकार तो इनके निवेश की ग़ुलाम है....

इन्हें सुरक्षा इसलिए दी जा रही है, क्योंकि भारत से 'बेइंतिहां प्यार' करने वाले संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन से इन्हें धमकियां मिलने की खबर है.......

लेकिन उस आम व्यक्ति का क्या जो कभी भी बिना किसी पूर्व धमकी के इस जैसे संगठनों का शिकार हो जाता है......
ये तो बहुत ऊपर की बात है.....
उन धमकियों का क्या-
-जो आम व्यक्तियों को रोज़ कभी किसी मामले में गवाही देने से रोके जाने के लिए दी जाती है?
-जो कभी किसी दबंग या खुद किसी पुलिसवाले से मिलती है, शिकायत दर्ज़ कराने से रोकने के लिेए?

ज़ेड प्लस तो छोड़िए...ये बताईये कि क्या कभी इन आम नागरिकों को साधारण सी भी सुरक्षा मिलेगी?
और अगर मिलेगी..
...तो कौन होगा सुरक्षा में? ये रोज़ रोज़ धमकाने वाले पुलिस वाले या करोड़ों रुपये की ट्रेनिंग लेने वाले कमांडो?

और सबसे बड़ा सवाल...
क्या सरकार ही इनकी सुरक्षा का खर्चा उठाएगी
या
खुद आम नागरिकों को इसके लिए भी अलग से और ज़्यादा टैक्स देना पड़ेगा ?


(इस पोस्ट में इस्तेमाल किये गए कार्टूनों के लिए कार्टूनिस्टों और गूगल का आभार......)

Wednesday 16 January 2013

अत्याचार का क्रूरतम चेहरा है 'कस्टडियल रेप'.......


मंगलवार (8 जनवरी) को सोनी सोरी की याचिका को स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दिया कि सोरी को जगदलपुर की सेंट्रल जेल में रखा जाए। हाल ही में राजधानी में हुए एक सामूहिक बलात्कार के विरोध में जब जन सैलाब सड़कों पर था, तो उसी दौरान सोनी सोरी का नाम एक बार फिर से चर्चा में आ गया। कुछ छात्र संगठनों ने इस महिला को न्याय दिलाए जाने के लिए इंडिया गेट पर प्रदर्शन किये।
      सोनी सोरी छत्तीसगढ़ की वह आदिवासी शिक्षिका - कार्यकर्ता है, जो हाल के महीनों में पुलिस हिरासत में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार की आवाज़ बनकर उभरी है। सोनी सोरी के केस ने एक बार फिर से सुरक्षा बलों द्वारा हिरासत में किये जाने वाले बलात्कार (कस्टडियल रेप) के मुद्दे को उठाया है। इसके बाद से ही इस पर काफी बहस हुई है और सुरक्षा बलों के अधिकार और उनकी कार्यप्रणाली कठघरे में है।
क्या है हिरासती बलात्कार (कस्टडियल रेप)?
            जब भी कस्टडियल रेप की बात आती है, तो आम तौर पर सबसे पहले सुरक्षा बलों द्वारा अपनी हिरासत में किये गए बलात्कार का ही ध्यान आता है। लेकिन कस्टडियल रेप सिर्फ सुरक्षा बलों तक ही सीमित नहीं है। कोई भी व्यक्ति जब अपने संरक्षण में किसी का बलात्कार करता है तो इसे ही हिरासत में बलात्कार कहते हैं। फिर चाहे वह किसी पुलिस (और अन्य सुरक्षा बलों) की हिरासत में हो या किसी छात्रावास के संरक्षक (वार्डन) के द्वारा हो।
      यदि कोई चिकित्सक स्वास्थ जांच या ऑपरेशन की आड़ में किसी का बलात्कार करता है तो उसे भी कस्टडियल रेप ही कहा जाता है। इसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी को नौकरी दिलाने की बात कहकर उसका बलात्कार करता है, तो वह भी हिरासती बलात्कार ही है।
कुछ प्रमुख मामले
     देश भर में सुरक्षा बलों की हिरासत में बलात्कार के कई मामले आते रहे हैं। लेकिन सभी ज़्यादा चर्चा में नहीं आ सके। छत्तीसगढ़ की आदिवासी शिक्षिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता सोनी सोरी के साथ पुलिस हिरासत में हुई हिंसा पिछले पंद्रह महीनों से गंभीर विषय बना हुआ है। सोरी को 4 अक्टूबर 2011 को दांतेवाड़ा के जाबेली गांव से गिरफ्तार किया गया था। उस पर आरोप लगाया गया कि वह माओवादियों और एस्सार कंपनी के बीच कुरियर का काम कर रही थी।
      इसके बाद सोरी ने कहा कि पूछताछ के दौरान उसे निर्वस्त्र करके प्रताड़ित किया गया। सोरी ने दांतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक (एसपी) अंकित गर्ग पर भी आरोप लगाया कि गर्ग ने तीन लोगों को कमरे में भेजा, जिन्होंने उसके साथ बलात्कार किया। इसके बाद ही सोनी सोरी को अस्पताल में भर्ती किया गया, जहां डॉक्टरों ने उसके गुप्तांगों में भरे गये पत्थर निकाले। इससे पुलिस हिरासत में बलात्कार का मुद्दा फिर गरमा गया और पुलिस के इस भीषणतम कृत्य की बेहद निंदा हुई।
      सोनी सोरी का मामला हिरासती बलात्कार का कोई पहला या आखिरी मामला नहीं है। इससे पहले भी कई मामले आए हैं और इसके बाद भी ऐसी कई रिपोर्ट आयी हैं, जिनमें सुरक्षा बलों ने अपनी हिरासत में महिलाओं के साथ दुराचार किया।
      2009 में कश्मीर घाटी के शोपियां में दो महिलाओं, नीलोफर जान और आसिया जान, का शव मिलने पर हंगामा हुआ था। उनके परिवार वालों ने आरोप लगाया कि उन दोनों के साथ सुरक्षा बलों ने हिरासत में बलात्कार किया और फिर हत्या कर दी गयी। हालांकि शवों की जांच में इस आरोप की पुष्टि तो नहीं हुई, लेकिन सुरक्षा बलों पर संदेह बरकरार रहा।
      इसी तरह जुलाई 2004 में भी इंफाल (मणिपुर) में 32 वर्षीय थांगजाम मनोरमा देवी की असम राइफल्स के जवानों द्वारा कथित रुप से हिरासत में बलात्कार और टॉर्चर के बाद हत्या कर दी गई। इसके विरोध में 15 जुलाई को ही करीब 40 महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन किया। उनके हाथों में पोस्टर था, जिसमें लिखा था- इंडियन आर्मी, रेप अस (भारतीय सेना, हमारा बलात्कार करो)।
अत्याचार का क्रूरतम रुप
     महिलाओं पर कई तरह के अत्याचार होते रहे हैं। लेकिन यौन दुराचार के रुप में भीषण अत्याचारों के चलते चिंता और ज़्यादा बढ़ गयी है। वर्तमान में कस्टडियल रेप महिलाओं पर होने वाले क्रूरतम अत्याचार के रूप में सामने आया है। इसमें सुरक्षा बलों की हिरासत में इलेक्ट्रिक शॉक के साथ ही गुप्तांगों में पत्थर डालने जैसी बेहद अमानवीय यातनाओं के मामले भी आए हैं।
      देश में कस्टडियल रेप की स्थिति बेहद गंभीर है। इसका अंदाज़ा केवल इससे लगाया जा सकता है, कि इस मामले में अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के बाद विश्व भर में भारत का तीसरा स्थान है। हिरासत में होने वाले बलात्कारों के मामले पिछले कुछ वर्षों में काफी ज़्यादा बढ़े हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि जो मामले पहले सामने नहीं आते थे, अब वो सामने आने लगे हैं।
      एशियाई मानवाधिकार केंद्र (एसीएचआर) ने दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद गठित जस्टिस जेएस वर्मा समिति को अपनी रिपोर्ट एवं सुझाव सौंपे हैं। इसके अनुसार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास दर्ज शिकायतों के आधार पर वर्ष 2002 से 2012 के बीच सुरक्षा बलों की हिरासत में 45 बलात्कार हुए। इनमें से सबसे ज़्यादा 18 बलात्कार साल 2007-2008 के दौरान हुए। वहीं 2009-2010 में कस्टडियल रेप के दो मामले दर्ज हुए।
      देश में गरीबों और पिछड़ों – आदिवासियों के प्रति हमारे समाज और सरकारी तंत्र में असंवेदनशीलता व्याप्त है। आदिवासी इलाकों में सुरक्षा बलों के पूर्वाग्रहों के कारण भी अक्सर यहां की महिलाओं को इन ज़्यादतियों का शिकार होना पड़ा है। ज़्यादातर मामलों में इन महिलाओं को माओवादियों से संबंध के आरोप में गिरफ्तार करके हिरासत में दुराचार किया जाता है। कई घटनाओं में सुरक्षा बलों की असंवेदनशीलता साबित भी हुई है। लेकिन इसके बावजूद दोषी अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। सोनी सोरी के साथ हिरासत में हुए बलात्कार के लिए कथित रुप से ज़िम्मेदार दांतेवाड़ा के एसपी अंकित गर्ग की जांच के बजाए गर्ग को 2012 में गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति पुलिस पदक दिया गया।
            सुरक्षा बलों को कानूनी रूप से भी कुछ राहतें मिली हैं, जिससे अक्सर इस तरह के अपराधों में उन्हें संरक्षण मिल जाता है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (साआरपीसी) की धारा 197 और सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (आफ्स्पा) के तहत किसी भी तरह के अपराध में सुरक्षा बलों पर अभियोग चलाने से पूर्व न्यायिक स्वीकृति लेनी आवश्यक है।
      लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सुरक्षा बलों (एवं अन्य लोक सेवकों) को लेकर दंड के प्रावधान नहीं हैं। भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 376 की विभिन्न उपधाराओं  में कई ऐसे प्रावधान हैं, जिनके अंतर्गत हिरासत में बलात्कार के आरोपी लोक सेवकों को पांच से दस साल तक की सज़ा हो सकती है। इसके साथ ही आर्थिक दंड भी लिया जा सकता है।
        हालांकि इन प्रावधानों के बावजूद भी हिरासत में महिलाओं के साथ बलात्कार एवं अन्य तरह की प्रताड़नाएं जारी हैं। इसका मुख्य कारण है इन कानूनों के कार्यान्वयन में कोई भी सख्ती नहीं बरती जाती। अक्सर राष्ट्रीय सुरक्षा और सशस्त्र सेनाओं के मनोबल को बनाए रखने की आड़ लेकर इन अपराधों को छुपाने का प्रयास किया जाता है। इसका फायदा उठाकर ही इस तरह के दुष्कर्मों को अंजाम दिया जा रहा है।
      आज देश भर में दिल्ली सामूहिक बलात्कार के विरोध में आवाज़ें उठ रही हैं। लेकिन कस्टडियल रेप को लेकर अधिक बहस न होने से एक बार फिर इस घिनौने कृत्य पर पर्दा पड़ रहा है। ऐसे में यह बेहद गंभीर परिस्थिति को बुलावा दे रहा है। इससे न केवल ऐसी घटनों को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि देश की सुरक्षा   व्यवस्था पर से आम लोगों, खासकर महिलाओं का भरोसा उठ जाएगा। इसके साथ ही महिलाओं के भीतर से भी विरोध के स्वर फूटेंगे, जो भरोसे की कमी के कारण उग्र एवं विनाशक भी हो सकता है।