Friday 30 December 2011

निराशाजनक अंत या निराशा का अंत ?

             इस वर्ष के प्रारंभिक महीनों में देश में ही दो ऐसे वाकये हुए, जिनकी देश को लम्बे समय से दरकार थी. सबसे खास बात यह कि ये दोनों ही घटनाएँ एक ही महीने के शुरुआती पखवाड़े में हुई. शायद आप सब भी समझ ही गए होंगे कि मैं किस सन्दर्भ में बात कर रहा हूँ?  ये घटनाएँ हैं भारत का क्रिकेट विश्व कप जीतना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक अदद आन्दोलन का आग़ाज़......
            पहले बात विश्व कप की करते हैं. इस वर्ष भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश में संयुक्त रूप से आयोजित दसवें क्रिकेट विश्व कप में शुरू से ही भारत को सबसे प्रबल दावेदारों में से माना जा रहा था. भारतीय टीम ने अपने बेहतरीन खेल से इस बात को साबित भी कर दिया और अपनी ही मेज़बानी में ये ख़िताब जीतने वाला पहला देश बना. इस दौरान भारतीय टीम ने पहले तो क्वार्टर फ़ाइनल में चार बार की विजेता और ख़िताब की मज़बूत दावेदार ऑस्ट्रेलिया को हराकर बाहर का रस्स्ता दिखाया और २००३ के विश्व कप फ़ाइनल में मिली हार का हिसाब बराबर किया. इसके बाद टीम ने चिर प्रतिद्वंदी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ विश्व कप में अपने अजेय रिकॉर्ड को बरक़रार रखते हुए सेमीफाइनल में बुरी शिकस्त दी. वैसे तो देश वासियों और संभवतः भारतीय टीम के लिए ये भी किसी विश्व कप विजय से कम नहीं था. फिर भी अभी विश्व कप जीतना बाकी  था, जो उन्होंने २ अप्रैल को मुंबई में श्रीलंका को हराकर कर दिखाया. २८ वर्षों बाद मिली इस ख़ुशी को देश भर में भरपूर जश्न के साथ मनाया गया. एक रूप में देखा जाये तो यह इस वर्ष की सबसे खुशनुमा खबर है.....
             इसी महीने ( अप्रैल ) दूसरी सबसे महत्वपूर्ण और संभवतः वर्ष की सबसे प्रभावकारी घटना थी, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त 'जन लोकपाल' की मांग को लेकर अन्ना हज़ारे द्वारा चलाया गया आन्दोलन. बीते दो साल के भीतर भ्रष्टाचार की बढती हुई खबरों के कारण जो असंतोष आम जन में बढ़ रहा था, उसको राह दिखाने का काम अन्ना हज़ारे ने अपने अनशन के ज़रिये किया. देश की पीड़ित जनता को एकजुट करने वाले इस आन्दोलन ने न केवल सरकार पर दबाव बनाया, बल्कि यह भी दर्शाया कि संघर्ष की क्षमता देशवासियों के अन्दर है, बस जरूरत है तो नेतृत्व की, जो अन्ना हज़ारे के रूप में मिला. ५ अप्रैल को राष्ट्रीय राजधानी स्थित जंतर-मंतर से शुरू हुआ अनशन (आन्दोलन) ९ अप्रैल तक चला. इस दौरान ही जितना समर्थन आन्दोलन को मिला उसने भविष्य में होने वाले आंदोलनों की भूमिका तैयार की. आन्दोलनों का दौर आगे भी चलता रहा और जून माह में बाबा रामदेव के असफल और फिर अगस्त में दोबारा अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में हुए सफल आन्दोलन ने इस देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया. परिणामस्वरूप सरकार को ६ दशकों से अटके लोकपाल मुद्दे को गंभीरता से विचार करना पड़ा और वर्षांत में शीतकालीन सत्र में लोकसभा में बिल पारित करा ही दिया. यद्यपि कल राज्यसभा में राजनीतिक इच्छा-शक्ति के अभाव में एक बार फिर बिल टल गया.....
              उपरोक्त दोनों ही घटनाओं से जुड़े प्रमुख पक्षों के लिए हालाँकि साल की समाप्ति बेहद निराशाजनक रही. एक ओर भारतीय टीम अभी कल ही ऑस्ट्रेलिया से उसकी ही धरती पर पहले टेस्ट मैच में हार गयी. ये बात सब जानते हैं कि हमारी टीम विदेशी धरती पर अक्सर असहज ही रहती है. इसका उदाहरण हम इस साल पहले भी देख चुके हैं, जब इंग्लैंड में हमारी टीम की भद पिटी थी. तो इस तरह से भारतीय टीम के लिए साल का अंत बेहद निराशाजनक रहा. इसी तरह साल भर अपने अनशन और आन्दोलनों से देश को जगाने और राजनीतिक हलकों में खलबली मचने वाले अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगियों के लिए भी वर्ष का अंत बहुत उत्साहजनक नहीं रहा. पहले तो सरकार ने टीम अन्ना के द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल बिल को लोकसभा में दरकिनार कर दिया. इसके बाद तीसरी बार अनशन पर बैठे अन्ना हज़ारे को उनके स्वास्थ्य ने ही इजाज़त नहीं दी और उन्हें दूसरे ही दिन स्वयं अनशन समाप्त करना पड़ा. हालाँकि कथित रूप से पहले जैसा जनसमर्थन न मिलने के कारण उनका अनशन असफल हो गया. फिर उन्हें १ जनवरी से शुरू हो रही जेल भरो मुहिम को भी रद्द करना पड़ा. इस तरह वर्ष का अंत भ्रष्टाचार रोधी अभियान के लिए भी फलदायक नहीं रहा.
तो क्या ये माना जाना चाहिए कि जो उम्मीदें इस वर्ष कि शुरुआत में भारतीय क्रिकेट टीम से और टीम अन्ना से बंधी थीं वो महज़ हवा के झोंके के समान थी?
               अगर मैं इसको दूसरे नज़रिए से देखता हूँ तो लगता है कि ये कोई निराशाजनक अंत नहीं है, बल्कि निराशाओं का अंत है. अगर अभी तक हम वर्ल्ड कप नहीं जीत पाने को लेकर निराश थे तो इस साल उसका भी अंत हो गया. उसके बाद इंग्लैंड में हमे भले करारी हार का सामना करना पड़ा हो और विदेशी धरती पर हमारी लगातार नाकामी कि निराशा ऑस्ट्रेलिया से मिली हार के बाद और बढ़ गयी हो, लेकिन ये भी तो संभव है कि ये शायद हमारे लिए निराश होने का आखिरी क्षण था. शायद अब सारी निराशाओं का अंत हो जाये! अब आने वाले साल में हम न केवल अपनी धरती बल्कि विदेशी धरती पर जीत के झंडे बुलंद करें...... हम दोबारा से विश्व की नंबर १ टीम बन जाएँ. क्रिकेट तो महज़ मैंने उदाहरण स्वरुप लिखा है. ये बात हर खेल के लिए है. इस नए वर्ष में लन्दन में ओलिम्पिक खेलों का भी आयोजन होना है, जहाँ अभी तक हमे ज़्यादातर मौकों पर निराश होना पड़ा है. तो यही उम्मीद है कि अब यहाँ भी निराशा के बादल छंटेंगे और देश को खेल जगत में नयी खुशियाँ मिलेंगी. 
                यही बात भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के सन्दर्भ में भी लागू होती है. भले ही लोकपाल बिल एक बार फिर से अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त कर गया हो, और अन्ना का आंदोलन भी अप्रत्याशित रूप से असफल हो गया हो, जैसा कि सरकार और कई 'अन्ना आलोचकों' द्वारा प्रचारित किया जा रहा है,  लेकिन हमें इसे लेकर हतोत्साहित नहीं होना चाहिए. यहाँ पर मैं केवल अन्ना आन्दोलन की ही विशेष रूप से बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि भ्रष्टाचार विरोधी पूरी मुहिम की बात कर रहा हूँ, चाहे वह किसी भी रूप में किसी भी कोने में चल रही हो. हमें यह मानकर चलना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान में जो भी समस्या आ रही थी उनका अंत इस वर्ष के अंत के ही साथ हो चुका है. और अब इस नए साल में न केवल एक सशक्त एवं प्रभावकारी लोकपाल कानून आयेगा बल्कि भ्रष्टाचार के मामलों में कम से कम प्रारंभिक सफलता मिलेगी और यह पूरा आन्दोलन सफल होगा. साथ ही जिस तरह की ऊर्जा देशवासियों ने खासकर युवा वर्ग ने इस आन्दोलन में दिखाई है, वैसी ही ऊर्जा राष्ट्र के विकास और हित से जुड़े अन्य छोटे बड़े मुद्दों पर भी दिखायेंगे. लेकिन इसे केवल आन्दोलन तक ही सीमित नहीं रखना बल्कि इसको कार्यान्वित करने भी यही ऊर्जा बरक़रार रखनी होगी.
               इन मुद्दों को इस नज़रिए से देखने का मेरा एकमात्र उद्देश्य सकारात्मकता का संचार करना है. मैं इस बात से भली-भांति परिचित हूँ कि ये सब बातें बोलने और व्यावहारिक रूप से लागू होने में बहुत फर्क है, लेकिन ये फर्क केवल सकारात्मक सोच और दिशा के ही ज़रिये  मिट सकता है. हम करने को बहुत कुछ कर सकते हैं, बस हमारा नजरिया उस कार्य को करने के प्रति सही होना चाहिए और उस कार्य को पूरी इच्छा शक्ति से करना चाहिए. अतः ज़रूरत है कि हम आगामी वर्ष में अपनी सोच को और अपने कार्य को सकारात्मक दृष्टि से करें. फिर हमे जल्द ही ऑस्ट्रेलिया में जीतती हुई भारतीय टीम तो दिखेगी ही साथ ही ओलिम्पिक में भी हम अच्छा प्रदर्शन कर पाएंगे. रही भ्रष्टाचार की बात, तो जिस गति से यह फैला है, दूर होने में कम से कम उसकी आधी गति से ही सही, परंतु दूर ज़रूर हो जायेगा.........आमीन!    

Monday 26 December 2011

जीत का अग्निपथ....





                                                                                                                                                                                                इस वर्ष की संभवतः सबसे प्रतीक्षित टेस्ट श्रृंखला का आज एक बेहतरीन आग़ाज़ हुआ. बेहतरीन इसलिए  क्योंकि न तो बल्लेबाज़ पूर्णतः गेंदबाजों पर हावी हो पाए, बल्कि गेंदबाजों ने ही बल्लेबाजों को ज़्यादातर समय परेशान किया. यह बात और भी महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है, क्योंकि गेंदबाज़ भारतीय थे और बल्लेबाज़ ऑस्ट्रेलियाई. वो भी ऑस्ट्रेलिया की ही सरज़मीं पर. इसके शानदार आग़ाज़ के पीछे मैं एक और कारण मानता हूँ जो कि आज के सन्दर्भ में शायद सबसे सटीक बैठता है और ये है दर्शकों की संख्या. लगभग सत्तर हज़ार दर्शकों की मौजूदगी में चार टेस्ट मैचों की सीरीज़ का पहला मैच आज मेलबोर्न के 'मेलबोर्न क्रिकेट ग्राउंड' में  शुरू हुआ. एक ऐसे दौर में जब तेज़-तर्रार और छोटे प्रारूप का खेल अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है और क्रिकेट के इस पारंपरिक स्वरुप के अस्तित्व को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं,  तब किसी टेस्ट मैच में इतनी संख्या में दर्शकों की उपस्थिति बेहद शानदार और सुखद अनुभूति देती है.

              गौरतलब है कि आज 'बॉक्सिंग डे' ( क्रिसमस के अगले दिन २६ दिसंबर को ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में बॉक्सिंग डे के नाम से जाना जाता है ) पर शुरू हुई 'भारत-ऑस्ट्रेलिया' के बीच की इस श्रृंखला को मीडिया ने "अग्निपथ सीरीज़" नाम दिया है. अगर भारत के ऑस्ट्रेलिया में पिछले छः दशकों के रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो यह शीर्षक उपयुक्त लगता है. भारत आज तक एक बार भी ऑस्ट्रेलिया से उस की ही धरती में टेस्ट श्रृंखला नहीं जीत सका है. भारत ने ऑस्ट्रेलिया में अभी तक खेले गए कुल ३६ टेस्ट मैचों में से महज़ ५ में ही जीत दर्ज की है. ऐसे में तो यही कहा जा सकता है, कि भारत के लिए ऑस्ट्रेलिया में अपना रिकॉर्ड सुधारने की राह बेहद मुश्किल है. हालाँकि महज़ रिकॉर्ड के आधार पर भारत की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता. यह बात तब और भी पुख्ता हो जाती है, जब हम बीते कुछ सालों में भारत के प्रदर्शन पर नज़र डालते हैं. हालाँकि मैं यहाँ पर इन रेकॉर्डों का कोई भी उल्लेख नहीं करने जा रहा हूँ. 

               अगर दोनों ही टीमों के मौजूदा प्रदर्शन को आधार बनाएं, तो यह सीरीज़ दोनों ही टीमों के लिए अग्निपथ श्रृंखला है. भारत इस समय विश्व रैंकिंग में दूसरे जबकि ऑस्ट्रेलिया चौथे स्थान पर है. भारतीय टीम ने हाल के कुछ महीनों में बेहद शानदार प्रदर्शन किया है ( अगर इंग्लैंड के दौरे को छोड़ दें तो ) और कुछ समय पूर्व तक विश्व की नंबर १ टीम का ताज धारण किये हुए थी. फिर भी भारतीय टीम के लिए अपना रिकॉर्ड सुधारने की चुनौती बेहद मुश्किल है. दूसरी ओर ऑस्ट्रेलियाई टीम है, जो पिछले कुछ समय से बहुत ही कठिन दौर से गुज़र रही है. टीम का प्रदर्शन बीते महीनों में निराशाजनक रहा है. टीम ने न केवल विश्व विजेता का खिताब गंवाया है, बल्कि रैंकिंग में पहला स्थान भी खोया है. एडम गिलक्रिस्ट, ग्लेन मैक्ग्रा, शेन वार्न और हेडन जैसे बड़े खिलाड़ियों के सन्यास लेने के बाद से ऑस्ट्रेलियाई टीम के खेल का स्तर गिरा है. टीम संक्रमण के दौर से गुज़र रही है.....और कई वरिष्ठ खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं. ऐसे में ये सीरीज़ ऑस्ट्रेलिया के लिए भी काँटों से भरी होने वाली है. ऑस्ट्रेलिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी ही धरती पर अपने वर्चस्व को बनाये रखना है, जिसे लगातार चुनौती मिल रही है. हालाँकि ऑस्ट्रेलिया को कम से कम उसके ही मैदान में मात देना इतना आसान नहीं है. ऐसे में ये श्रृंखला दोनों ही टीमों के लिए अग्निपथ कि तरह ही होने वाली है....

                 एक पहलू और है, जो इस सीरीज़ में बहुत ही महत्वपूर्ण है और वह है, टीमों का व्यवहार. खासतौर  पर ऑस्ट्रेलियन टीम का व्यवहार. २००७-०८ में भारत के ऑस्ट्रेलिया दौरे को शायद ही कोई भूला होगा. सिडनी टेस्ट में जितनी ख़राब अम्पायरिंग देखने को मिली थी, उतना ही बुरा बर्ताव ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों ने किया. पहले तो खेल भावना का उल्लंघन करते हुए गलत तरीके से भारतीय खिलाड़ियों को आउट करने का दावा किया, जिसमे उन्हें अम्पायरों का भी सहयोग मिला, उसके बाद भारतीय स्पिनर हरभजन सिंह के खिलाफ नस्लवाद का झूठा आरोप भी लगाया. इन सब घटनाओं से वह दौरा बीच में ख़त्म होने कि कगार पर पहुँच गया था. इसलिए इस सीरीज़ में इस पक्ष पर भी सभी की नज़र रहेगी.  

                                    
 बहरहाल, सीरीज़ का शुभारम्भ हो चूका है. दरअसल शुभारम्भ इसलिए कहा गया है, क्योंकि अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे टेस्ट मैच के लिए इस तरह की संतुलित शुरुआत बेहद अहम है- दर्शकों की भारी संख्या की दृष्टि से भी और गेंद व बल्ले के बीच बराबर की  टक्कर की दृष्टि से भी. दोनों ही टीमों के बीच के इतिहास को देखते हुए यही आशा है कि इस बार की सीरीज़ भी उच्च स्तर का रोमांच दर्शकों में पैदा करेगी. साथ ही ये उम्मीद भी है कि सभी खिलाड़ी स्वच्छ एवं स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से खेल खेलेंगे, खेल भावना का सम्मान करते हुए. साथ ही इसी तरह दर्शक भविष्य में भी टेस्ट मैच के प्रति अपनी रूचि बनाये रखेंगे......
                 अंत में भारतीय होने के नाते यही आशा और दुआ करूँगा कि भारत ही ये श्रृंखला जीते.......सम्मान और गर्व के साथ.           

Saturday 24 December 2011

पहले किसका इंतज़ाम..........?


               इस  बार  संसद  का  शीतकालीन  सत्र  शुरुआत  से  ही  बेहद   हंगामेदार  रहा.  हालाँकि  यह  कोई  नयी  बात  नहीं  रह  गयी  है. संसद  का  लगभग  प्रत्येक  सत्र  ही  'माननीयों'  के  शोरगुल  से  शुरू  होता  है  और  हंगामे  के  साथ  ही  ख़त्म  होता  है.  पिछले  वर्ष  का  शीतकालीन  सत्र  अब  भी  सबको  याद  होगा,  जब सम्पूर्ण  विपक्ष  ने  २ जी  घोटाले  की  जाँच  हेतु  'संयुक्त  संसदीय  समिति'  की  मांग  को  लेकर  संसद  का  आधे  से  ज़्यादा  समय  अपने  हंगामे  का  शिकार  बनाया  था. इसी  तरह  ये  सत्र  भी  अभी  तक  हंगामे  की  भेंट  चढ़ा  है.  हालाँकि  अब  जब  सत्र  लगभग  समाप्ति  की  ओर  बढ़  चुका  है, तो  सदन  में  मुख्य  मुद्दा  'खाने  की  समस्या'  को  लेकर  है. चलिए  इसको  मैं  इस  आलेख  में  आगे  समझाऊंगा........              
               बहरहाल, पहले इस सत्र का थोड़ा सा ज़िक्र करना चाहूँगा. इस सत्र के शुरू होते ही सरकार के रिटेल क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति को लेकर जमकर हो-हल्ला हुआ. विपक्ष ( मुख्य विपक्षी एन डी ए तथा अनिवार्य रूप से वाम दल ) तो अपने कर्तव्य स्वरुप इस निर्णय का विरोध कर ही रहा था, परन्तु सरकार को ज़्यादा परेशान उसके प्रमुख सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस ने किया. फलस्वरूप सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा. इस बीच सदन में कंपनी सचिव बिल और केबल टेलीविज़न नेटवर्क संशोधन जैसे कुछ प्रमुख बिल भी पास हुए हैं. अभी हाल ही में रूस में श्रीमद भगवद गीता पर प्रतिबन्ध लगाने के संभावित निर्णय को लेकर भी सदन में हल्का हंगामा हुआ है. सभी दलों ने सरकार से इसके विरुद्ध रूस सरकार से बात करने के लिए दबाव बनाया है. जिसको देखते हुए सरकार को सदन को विश्वास दिलाना पड़ा कि वे इस दिशा में प्रयासरत है.
                सत्र के समाप्ति की ओर बढ़ते बढ़ते इस वर्ष के दो सबसे महत्वपूर्ण बिल सदन में प्रस्तुत किये गये. दरअसल, ये दोनों बिल देश कि दो 'सबसे प्रमुख जमातों' के खाने को लेकर है. इनमे  से पहली जमात है हमारे 'श्रेष्ठ' एवं ' सम्माननीय' राजनेताओं और सरकारी अफसरों ( सभी स्तर के सरकारी कर्मचारी, जो खाने की प्रक्रिया में हिस्सेदार हैं ) की. इनके बारे में मशहूर है कि ये लोग खाने के लिए जीते हैं. वही देश की दूसरी जमात में वे लोग शामिल हैं, जिनके लिए खाने का अर्थ जीवन यापन से है. इनमें  से अधिकांश लोग ऐसे हैं, जिनके लिए २ वक़्त की रोटी भी मुनासिब नहीं होती. कहा जाता है कि ये लोग प्रतिदिन २० रुपये से भी कम में गुज़ारा करते हैं. ऐसे में सरकार किसके खाने का इंतज़ाम पहले करे?

                दरअसल, पहला बिल, जो कि पहली जमात से जुड़ा है, इस वर्ष का सबसे प्रतीक्षित एवं सबसे चर्चित बिल है. ये है 'लोकपाल' बिल. करीब चार दशकों से लटके इस बिल को इस वर्ष पुनर्जीवित करने में जितना योगदान समाजसेवी अन्ना हज़ारे और उनके साथियों द्वारा शुरू किये गये देशव्यापी जन आन्दोलन का है, उससे कई ज़्यादा वर्तमान 'संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन' सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान सामने आए घोटालों का है. हम सभी जानते हैं कि देश में व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है. राजनीतिक और सरकारी प्रतिष्ठानों में तो यह अव्वल दर्ज़े का है. खाने और खिलाने की जो परंपरा देश में है, उसने भ्रष्टाचार ( आर्थिक ) को बेहद बढ़ावा दिया है. ऐसे में लोकपाल बिल से ये उम्मीद है कि इससे देश के जनसेवकों और लोकसेवकों के "खाने-पीने की समस्या का समाधान" होगा और देश को भ्रष्टाचार से बहुत हद तक राहत मिलेगी. हालाँकि लोकसभा में  प्रस्तावित लोकपाल बिल को देखने से लगता नहीं है कि इससे किसी भी हद तक भ्रष्टाचार में कमी आयेगी. खैर, ये तो अन्य बात है.....यहाँ पर तो मुद्दा ये है कि पहले किसकी समस्या हल होगी? वहीँ दूसरा बिल है- खाद्य सुरक्षा बिल, जो कि देश के सबसे साधारण तबके से जुड़ा हुआ है. कहने को तो इन्हें जनार्धन ( जनता जनार्धन ) कहा जाता है, परन्तु इनकी हालत देश में सबसे बद्तर है. इस बिल को सोनिया गाँधी के दिल  के सबसे करीब बताकर प्रचारित किया जा रहा है. ऐसा माना गया है कि इस बिल के कानून बन जाने से देश के लगभग ६५ प्रतिशत से अधिक गरीब परिवारों को आवश्यक रूप से अत्यंत सस्ते दामों में भोजन की सुरक्षा मिल जाएगी. हालाँकि लोकपाल बिल के साथ ही प्रस्तुत हुए इस बिल को भी हंगामे का सामना करना पड़ा और इस पर कोई खास चर्चा भी नहीं हो पाई. ऐसे में सरकार के लिए यह बड़ी मुश्किल है कि वो पहले किसकी खाने की समस्या का निबटारा करे? दरअसल, इन दोनों ही वर्गों से जुडी ये समस्या देश को पीछे धकेलने का ही काम कर रही है. जहाँ एक ओर तो भ्रष्टाचार हमारे देश के विकास में बहुत बड़ा अवरोधक है और नासूर बनने की के काफी करीब प्रतीत होता है, वहीं दूसरी ओर गरीबी ओर भुखमरी की समस्या देश की 'मज़बूत' होती आर्थिक स्थिति को खोखला साबित करने का प्रयास करती है. इतना ही नहीं, इन दोनों समस्याओं ने विदेशों में भी देश की छवि धूमिल ही की है. यूँ तो इन दोनों ही से हमारा रोज़ आमना-सामना होता है, परन्तु तब और ज्यादा यकीन हो चलता है जब 'ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल' और 'मानव विकास सूचकांक' में हमारी गिरी हुई हालत दिखती है. ऐसी स्थिति में अगर इन दोनों में से किसी भी मोर्चे पर सरकार चूकती है तो, निश्चित रूप से देश कई साल पीछे चला जायेगा. सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी तरह जल्द से जल्द ये दोनों ही बिल कानून की शक्ल लें.
               बहरहाल, अब जब संसद की  पहले से तयशुदा अवधि समाप्त हो गयी है, और लोकपाल बिल को पास करने के लिए संसद का सत्र तीन दिन ( २७,२८,२९ )  और बढ़ाया गया है, तो ऐसे में ये तय है कि गरीब जनता को खाने का क़ानूनी हक़ कम से कम इस सत्र में  नहीं  मिलने वाला. लेकिन लोकपाल बिल को किसी भी हालत में इसी सत्र में पास करने की जो ज़िम्मेदारी सरकार ने ली है, उसके लिए सरकार की थोड़ी तो प्रशंसा  की ही जानी चाहिए. यद्यपि यह बिल भ्रष्टाचार को दूर करने में कितना कारगर साबित होगा, ये तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा. परन्तु उम्मीद की जानी चाहिए कि लोकपाल अपने सश्क्ततम रूप में निकल कर सामने  आए. वैसे भी अगर लोकपाल बिल पहले पारित हो जाता है, तो यह अप्रत्यक्ष रूप से खाद्य सुरक्षा के कार्यान्वयन के लिए भी फायदेमंद है. क्यूंकि हमारे देश में न तो खाद्यान की ही कमी है और न ही योजनाओं और कानूनों की कमी है. ज़रूरत है तो बस उनके उचित कार्यान्वयन की. और यहीं  पर लोकपाल मददगार साबित हो सकता है, क्यूंकि हमारे देश की अधिकतर सरकारी योजनओं और कोष को राजनेता और नौकरशाह अपने खाने के इंतज़ाम में लगा देते हैं, अतः पहले इनको निबटाने की ज़रूरत है. बाकी सब तो फिर अच्छा हो ही जायेगा.........        

Friday 23 December 2011

एक से बढ़कर एक स्टंटबाज़......

             आजकल देश की राजनीती में लोकपाल, भ्रष्टाचार, आन्दोलन, अन्ना आदि जैसे कई शब्द लगातार गूंज रहे हैं. हालाँकि विगत दस-ग्यारह महीनों से ये सभी शब्द आम जनता की ज़ुबान पर भी छाए हुए हैं, परन्तु राजनीतिक गलियारों में इनका ज़िक्र कुछ ज़्यादा ही हो रहा है. इसके साथ ही एक और शब्द बेहद इस्तेमाल हो रहा है, जो कि वर्तमान सियासी मौसम में हमारे राजनीतिज्ञों की ज़ुबान पर बेहद आम हो जाता है. वर्तमान सियासी मौसम से मेरा मतलब चुनावी मौसम से है. जी हाँ, आने वाले तीन चार महीनो में देश के पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. आपने ये शब्द अक्सर सुना होगा और प्रयोग भी किया होगा. चलिए, बात को ज़्यादा न खींचते हुए मैं आपको बताता हूँ. ये शब्द है - 'स्टंट'(stunt).
             बीते कई सालों से हम सब इस शब्द को लगातार सुनते आ रहे हैं. प्रायः फिल्मों में सुनाई देने वाला ये शब्द चुनावों के दौरान हमारे 'माननीय' राजनेताओं के मुख से सुनाई  देने लगता है. ये तो हम सभी जानते हैं कि चुनाव का समय आते ही राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक, सभी 'महत्वपूर्ण घोषणाओं' में व्यस्त हो जाते हैं. इनमें से अधिकांश घोषणाएं ऐसी होती हैं, जिनकी मांग आमतौर पर जनता बीते चार सालों ( या कई सालों ) से कर रही होती है परन्तु उन मांगों पर सरकार का नक्कारा रवैया कायम रहता है. लेकिन यही तो चुनावी माया है, कि जो काम कई सालों से नहीं हुआ होता, वो ठीक चुनाव पूर्व संभव हो जाता है. फिर शुरू होता है शब्दों का खेल. और इस खेल का सबसे पहला शब्द 'स्टंट' ही होता है. विरोधी दल किसी भी सरकारी घोषणा को (चाहे केंद्र सरकार करे या राज्य सरकार ) 'चुनावी स्टंट' ही करार देते हैं. वैसे जानते तो हम सब भी हैं, कि ऐसे समय में होने वाली घोषणा चुनाव में मतदाताओं को लुभाने के खातिर ही की जाती है.
             ऐसा ही कुछ आजकल देश में चल रहा है. ख़ासतौर पर सियासी दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीती में. उत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल में अपनी जीत दर्ज करने के लिए सभी दल जोर -आज़माइश में लगे हैं. परन्तु वोटरों को लुभाने की चाभी मुख्य रूप से 'बहुजन समाज पार्टी' और 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के हाथ है. और दोनों ही दल इसका भरपूर लाभ लेने में जुटे हुए हैं. हाल के दिनों में हुई कई 'अभूतपूर्व' सरकारी ( केंद्रीय और राज्यीय दोनों ) घोषणाओ से ये ज़ाहिर भी हो चुका है. सबसे पहले प्रदेश की मुख्यमंत्री कुमारी मायावती ने राज्य को चार भागों में बाँटने की घोषणा करके सबको सकते में डाल दिया. ये बात सब जानते हैं कि राज्य को विभाजित करने की मांग वर्षों पुरानी है. ऐसे में ऐन चुनाव से पहले इस घोषणा का महत्व समझा जा सकता है. मायावती के इस ऐलान को सबसे पहले कांग्रेस ने ही चुनावी स्तुंत करार दिया. उसकी देखा-देखी अन्य दलों ने भी   इसे तमाशा ही कहा. बहरहाल, केंद्र ने मुख्यमंत्री के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया.
             कुछ ऐसा ही तमाशा कांग्रेस ने भी किया. यू.पी. के इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ चुके राहुल गाँधी की महत्वकांक्षाओं को तुष्ट करने के लिए केंद्र सरकार ने भी राज्य के बुनकरों का कई करोड़ों का क़र्ज़ माफ़ कर दिया है. इस कदम पर सबसे पहले प्रतिक्रिया जताते हुए ब.स.पा. ने भी इसे महज़ एक चुनावी स्टंट बताया. अब कल ही केंद्र सरकार ने एक और ऐलान किया है. सरकार ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अल्पसंख्यकों के लिए भी ४.५ प्रतिशत आरक्षण को लागू करने की स्वीकृति दे दी है. उत्तर प्रदेश के चुनाव के मद्देनज़र हुई ये घोषणा भी सरकार की चुनावी चाल है. हालाँकि अभी तक किसी भी दल ने आधिकारिक तौर पर इसे चुनावी स्टंट नहीं कहा है, परन्तु हम सब जानते हैं  कि इसके पीछे केंद्र सरकार का क्या उद्देश्य है?
              बहरहाल, हमें ये समझने की आवश्यकता है कि इन अवसरवादी घोषणाओ से हटकर हमें सही नेतृत्व का चयन करना है. ऐसे 'स्टंट' तो हर चौथे-पांचवे साल होते रहेंगे. अगर हम ही हर तरह की जातिगत, सांप्रदायिक तुष्टिकरण की विचारधारा से ऊपर उठकर अपने प्रतिनिधियों को चुनेंगे तो ये घोषणाएं महज़ चुनावी तमाशा न बनकर विकासपरक और देश को आगे ले जाने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता का भी सूत्रपात करेंगी.

Wednesday 21 December 2011

.....और कब तक ये 'रस्मी विलाप'?

             अभी कुछ दिनों पूर्व(१३ दिसंबर) को संसद पर आतंकी हमले के दस वर्ष पूरे हुए. हर साल की ही तरह इस  साल भी देश भर में उस हमले में शहीद हुए पुलिस के जवानों को याद किया गया और उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी. साथ ही देश के बड़े राजनेताओं ने एक बार फिर रटी-रटाई जुबान में आतंक के खिलाफ दृढ-संकल्प की बात दोहराई. ऐसा ही कुछ विगत  २६ नवम्बर को भी देखने को मिला. मुंबई पर हुए आतंकी आक्रमण की तीसरी बरसी पर भी 'रस्मी' तौर पर ये सभी औपचारिकतायें पूरी की गयीं.
              इस सब को रस्मी प्रक्रिया का नाम देने में स्वयं मैं भी आहत होता हूँ. परन्तु इसके लिए विवश हूँ. आखिर इतने वर्षों से हम इन सबके प्रति अपना क्षोभ मौखिक( अर्थात सैद्धांतिक ) रूप में ही तो दिखाते रहे हैं. इन सबको रोकने या आरोपियों के खिलाफ कोई कठोर कदम तो आज तक उठाया नहीं है. ऐसे में अगर इसे महज़ औपचारिकता या रस्म का नाम दिया जा रहा है तो इसमें गलत क्या है? संसद पर हमले के पीछे षड्यंत्रकारी दिमाग यानी अफज़ल गुरु को हम ६ साल बाद भी फंसी पर नहीं चढ़ा सके हैं. और जिस तरह के राजनीतिक हालत देश में बनते रहे हैं, उसको देखते हुए भी यही लगता है कि आगे भविष्य में भी उसे सज़ा शायद ही मिले.
              हमारा देश १९९३ के बाद से लगातार आतंकी हमले का शिकार बनता आ रहा है. मुंबई से शुरू होता हुआ ये सिलसिला आज पूरे देश में जारी है. २००८ के मुंबई हमलों के बाद भी सरकार ने कहने को तो एन.आई .ए जैसी संस्था तैयार कर दी परन्तु कोई ऐसा कठोर निर्णय  नहीं लिया जो कि आतंकियों के सामने डर पैदा करता. इतना कुछ हो जाने के बाद भी देश पर तीन और आतंकी हमले बीते १८ महीनो में हो गये. कसाब पर पिछले ३ सालों में करीब १६ करोड़ रूपए खर्च किये जा चुके हैं. और अभी तक भी उसे सज़ा नहीं दी गयी है क्यूंकि अभी उसका मुकदमा सर्वोच्च न्यायलय में चल रहा है. हालाँकि जिस तरह से उच्चतम न्यायलय द्वारा मृत्युदंड मुक़र्रर किये जाने के ६ साल बाद भी अफज़ल गुरु को दंड नहीं दिया गया है, उसको देखते हुए अगर भविष्य में कसाब को भी सज़ा नहीं दी जाएगी तो कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी.
             आम तौर पर इन हमलों को ख़ुफ़िया चूक माना जाता है, परन्तु उससे भी बढ़कर ये राजनीतिक अकर्मण्यता का नतीजा है. ये जानने के बावजूद कि देश में होने वाले आतंकी हमलों के पीछे पाकिस्तान संचालित आतंकी सरगनाओं का हाथ होता है, हम न तो पाकिस्तान के खिलाफ कोई कदम उठाते हैं, बल्कि कुछ दिनों के लिए तथाकथित 'कड़ा रुख' अपनाने के बाद स्वयं शांति का प्रस्ताव लेकर पहुँच जाते हैं......कभी बस सेवा शुरू करके तो कभी क्रिकेट श्रंखला शुरू करके......उस पर भी राजनीतिक तुष्टिकरण के कारण एक बड़े आतंकी को फांसी पर न चढ़ाना हमारी इच्छाशक्ति को और कमज़ोर बनाता है और दुनिया के सामने हमें  एक "सॉफ्ट टार्गेट" के रूप में पेश करता है.
             भले ही प्रशासनिक निर्णय लेने का अधिकार सरकार को ही है, परन्तु इसमें हमें यानी देश के आम नागरिक को भी हिस्सा लेने की ज़रूरत है. मेरे कहने का अर्थ ये है कि भले ही हम सरकार को इन सबके लिए जायज़ रूप से दोषी ठहराएँ, परन्तु इसके लिए कुछ रूप से शायद हम भी ज़िम्मेदार हैं. हमने  कभी सरकार पर इन सबके लिए दबाव डालने की कोशिश नहीं की. जिस तरह से हाल ही में देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन आन्दोलन चला और सरकार को समय समय पर जन दबाव में मांगें स्वीकार करनी पड़ी, उसी  प्रकार अगर हम सब मिलकर अपने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए और अफज़ल गुरु तथा कसाब को जल्द से जल्द सज़ा दिलाने के लिए जन-आन्दोलन चलायें तो निश्चित रूप से सरकार को कठोर कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा. क्यूंकि भले ही  हमारी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार की है, परन्तु  अंततोगत्वा  हमारे खुद के प्रयास ही हमें सुरक्षित रखेंगे.......
            "अन्यथा हर बार की तरह आगे भी ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी और हमेशा की तरह हम रस्मी तौर पर उन पर मात्र  विलाप ही करते रह जायेंगे..........."

Monday 19 December 2011

सचिन तेन्दुलकर - "बस नाम ही काफी है...."

वैसे तो सचिन तेन्दुलकर एक खिलाड़ी के तौर पर अपने खेल से बरसों से विश्व के खेल प्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। अपने इसी बेहतरीन खेल के कारण वे शुरुआती दौर से ही खेल प्रेमियों, विशेषतः क्रिकेट के चाहने वालों के दुलारे रहे हैं और उनके बीच चर्चा का विषय रहे हैं। एक पूरी पीढ़ी इस शख़्स से प्रेरित होकर ही क्रिकेट की ओर आकर्षित हुई है। अतः आज 'सचिन तेन्दुलकर' नाम ही ध्यानाकर्षण का माध्यम बन गया है।
इस माध्यम का लाभ आज अधिक से अधिक लोग उठाने का प्रयास कर रहे हैं। चाहे वह मीडिया हो या कोई खिलाङी या कोई आलोचक या कोई विश्लेषक। खासतौर पर मीडिया ने जिस तरह से सचिन के नाम को आत्मसात् कर लिया है, वह समझने की ज़रूरत है। भारतीय मीडिया के लिये सचिन तेन्दुलकर महज़ एक नाम न होकर एक मुख्य विषय बन गया है, जिस पर लगातार कई दिनों तक 'प्राइम टाइम' पर कार्यक्रम चलाया जा सकता है। फिर चाहे वह सचिन का बनाया गया कोई नया रिकॉर्ड हो या किसी पारी में शून्य पर आउट हो जाना या 100वें शतक का इन्तज़ार हो, हिन्दी-अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं का मीडिया उनकी चर्चाओं से अटा पड़ा रहता है। सचिन की महान उपलब्धियों और उतनी ही बड़ी चर्चाओं का नतीजा है कि भारत सरकार को देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' की पात्रता में परिवर्तन करना पड़ा, जिससे कि अब यह खिलाड़ियों को भी मिल सकता है।
बहरहाल, मुख्य मुद्दे पर लौटते हुए सचिन की बात करते हैं। दरअसल, मीडिया में सचिन के नाम पर होने वाली चर्चा का लाभ कई ऐसे लोग उठाने का प्रयास करते हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना होता है। चाहे वो सचिन के बारे में कोई विवादास्पद टिप्पणी हो या कोई अनूठी बात। वास्तव में ऐसे ही कुछ बयान बीते कुछ दिनों में सुनने को मिले, जिनसे टिप्पणीकार को बेहद चर्चा मिली। इन सबमें सबसे पहला नाम है, पाकिस्तान के विवादास्पद पूर्व तेज़ गेंदबाज़ शोएब अख़्तर का। शोएब की सचिन से प्रतिद्वन्दिता जगजाहिर है। इन जनाब ने हाल ही में अपनी आत्मकथा "कंट्रोवर्शली योर्स" जारी की। इस पुस्तक में एक जगह इन्होनें दावा किया कि सचिन हमेशा से इनकी तेज़ गेंदों से डरते रहे हैं। इनके इस दावे पर समस्त मीडिया में हो-हल्ला मचा और लम्बे समय से चर्चा में पाने में असफल रहे शोएब बहुत ही सफलतापूर्वक चर्चा का केन्द्र बन गये।
इन्हीं के एक अन्य पूर्व साथी हैं पूर्व कप्तान शाहिद अफ़्रीदी। इन्होनें न केवल शोएब की बात का समर्थन किया बल्कि ये दावा भी किया कि सचिन तो फ़िरकी गेंदबाज़ सईद अजमल से भी डरते थे और 2011 विश्व कप के सेमीफ़ाइनल मैच में सईद अजमल के सामने सचिन के पैर भी काँप रहे थे। क्रिकेट के जानकारों के लिए भले ही ये सब हास्यास्पद हो, परन्तु इससे अफ़्रीदी को ज़रूर चर्चा मिली। साथ ही उनका तथाकथित 'सन्यास' या कहें वनवास समाप्त हुआ, क्योंकि उपहार स्वरूप पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने उन्हें पुनः राष्ट्रीय टीम के लिये चयनित किया।
ये तो महज़ एक ही उदाहरण है। ऐसे कई अन्य उदाहरण हमें आए-दिन देख़ने को मिल जाते हैं, जो सचिन की शख़्सियत का इस्तेमाल करके अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करते हैं। इन सबसे उन लोगों को ले ही पल-दो-पल की चर्चा मिले या न मिले, परन्तु इससे 'सचिन तेन्दुलकर' की शोहरत पर ज़रा भी नकारात्मक असर नहीं पड़ता और शायद भविष्य में भी नहीं पड़ेगा, क्योंकि सच हम भी जानते हैं और "वो" भी...........।।

Thursday 8 September 2011

हम में है हीरो..........

विगत माह १५ अगस्त को टेलीविज़न पर एक नया विज्ञापन प्रसारित हुआ. यह विज्ञापन दुपहिया वाहनों की जानी-मानी निर्माता कंपनी हीरो मोटो कॉर्प का है, जो कि पूर्व में हीरो होंडा थी। देखने और सुनने में प्रिय लगने वाले इस नए विज्ञापन का शीर्षक है, 'हम में है हीरो....' और इस विज्ञापन की 'पंचलाइन' कुछ इस तरह से है...."हर हिन्दुस्तानी में है एक हीरो"।
इस विज्ञापन के टेलीविज़न पर प्रसारित होने के ठीक एक दिन बाद ही ये बात कुछ नए चरितार्थ भी हो गयी. १६ अगस्त की सुबह देश को एक नया हीरो मिला- अन्ना हजारे. भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे के अनशन की शुरुआत के साथ ही देश भर से उनके इस आन्दोलन को भारी जन समर्थन मिला. वृद्ध व्यक्तियों से लेकर नन्हे बच्चों ने आन्दोलन में हिस्सा लिया. इस आन्दोलन को सफल बनाने में युवाओं ने सबसे बड़ा किरदार अदा किया, क्योंकि देश के हर इलाके के युवाओं ने अपने अलग अलग तरीकों से इस मुहिम में अपना योगदान दिया. अंततः सरकार को श्री अन्ना हजारे की कुछ मांगों को संसद में स्वीकार करना ही पड़ा। १२ दिन के अनशन के अन्ना ने २८ तारीख को अपना अनशन यह कहते हुए समाप्त किया कि अभी तो शुरुआत हुई है.....अभी बहुत काम करना बाकी है.....इस तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध नागरिक समाज द्वारा चलाये गए इस आन्दोलन को प्रारंभिक सफलता प्राप्त हुई।
बहरहाल, मैं अपनी मुख्य बात पर वापस आता हूँ। १५ अगस्त को हीरो मोटो कॉर्प के उस विज्ञापन के प्रसारण के ठीक अगले ही दिन विज्ञापन के गीत का और उसकी पंचलाइन का सही साबित होना बहुत बड़ा संयोग है। हर दिन के साथ जैसे जैसे इस विज्ञापन की आवृति टेलीविज़न पर बढती गयी, उसी गति से अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन गति पकड़ता गया. जिस तरह से देश के हर कोने से इस मुहिम को समर्थन मिला, उससे यह सिद्ध हो गया के वाकई में हर एक हिन्दुस्तानी में एक हीरो है। ये हीरो हमारे अन्दर छुपा होता है, बस हमे उसे तराशने कि ज़रूरत होती है। हालाँकि इसे महज़ एक संयोग समझ कर नहीं छोड़ देना चाहिए, बल्कि इससे ये बात भी समझने की आवश्यकता है, कि देश में बदलाव का समय आ गया है। इस बदलाव से मेरा अर्थ मात्र राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन से नहीं है, बल्कि हर उस क्षेत्र में बदलाव का समय है, जहाँ भ्रष्टाचार और कपट व्याप्त है। अमीर और गरीब के बीच बढ़ रही आर्थिक विषमता को काम करने का समय आ गया है। व्यापक स्तर पर प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है। " भारत में ऐसा ही होता रहेगा......." वाली हमारी मानसिकता में भी बदलाव का समय आ गया है और यह विज्ञापन तथा भ्रष्टाचार विरोधी यह आन्दोलन इस बदलाव की शुरुआत है.
इस विज्ञापन को महज़ विज्ञापन तक ही सीमित नहीं रखते हुए हमे इसके गीत में ज़ाहिर किये गए शब्दों को समझने की और इसे सार्थक बनाने की ज़रूरत है, क्योंकि "हर एक हिदुस्तानी में एक हीरो है........"।
"जय हिंद"

Tuesday 12 July 2011

सज़ा या भेंट


आज सुबह जब मैं बस से नोएडा ऑफिस आ रहा था, तो डीएनडी फ्लाई-वे पर यमुना पर बने पुल के ऊपर से गुजरते हुए मैंने एक शख़्स को देखा। इस तथाकथित भद्र पुरुष ने अपनी कार पुल में ही किनारे खङी की और अपनी अंध-श्रद्धा के नाम पर पूजा की राख आदि उङेल दी यमुना मैया में। यह देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैं यही सोच रहा था कि यही वे लोग हैं जो ख़ुद को सभ्य और समझदार कहने का दंभ भरते हैं, परंतु अंध-भक्ति के द्वारा उस शख्स ने यह साबित कर दिया कि उसके अन्दर व्यावहारिक ज्ञान एवं समझदारी का नितांत अभाव है।
ये बात जब मैंने ऑफिस में अपने दोस्त अनुज को बतायी तो उसने एक बहुत ही बेहतरीन सुझाव दिया। उसने कहा क् मुझे पांच रुपये का एक सिक्का उस व्यक्ति पर फेंकना चाह्ए था। अगर वह सिक्का उस पर लग जाता तो अच्छा, क्योंकि उसा उसके किये की सजा मिल जाती। अगर नहीं लगता तो भी अच्छा, क्योंकि फिर वह सिक्का मैया को भेंट के रूप में चढ़ जाता...............